प्राचीन भारत एवं राजनय

डॉ.विभा सिंह

भारत के इतिहास पर अगर हम नजर डालें तो पायेंगे कि राजनय भारत के लिये नया नही है इसकी जड़े अति प्राचीन काल तक जमी है । पौराणिक गाथाओं में राजनैतिक गतिविधियों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । वेद स्मृतियां और सदाचार हिन्दु कानून के मूल स्त्रोत हैं ।
अर्थवेद संहिता में सम्राट, हिन्दु राजनय का केन्द्र था । प्राचीन भारतीय राजनैतिक विचार को कौटिल्य, मनु, अष्वघोष, बहृस्पति, भीष्म, विषाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है ।
राजषास्त्र, नृपषास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या तथा राजधर्म आदि शास्त्रों के राज्य तथा राजधर्म आदि शास्त्रों में राज तथा राजा विषयों में विस्तृत वर्णन मिलता है ।
वेदों में तो राजनय से संबंधित उपलब्ध विषेष विवरण आज राजनैतिक संदर्भ में भी उपयोगी है ।
अर्थवेद- में राजा को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी छल, कपट आदि के प्रयोग का परामर्ष देते हैं ।
ऋगवेद- में सरमा इन्द्र की दूती बनकर पापियों के पास जाती है ।

नारद - पौराणिक कथाओं में नारद का इसी रूप में कार्य करने का वर्णन है, नारद वातधादुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे । वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच के राजाओं को एक दूसरे की सूचनाओं को आदान प्रदान का कार्य करते थे । नारद एक कुषल राजदूत रहे यह हम कह सकते हैं । इस प्रकार पुरातन काल से ही राजनय का विषिष्ट स्थान रहा है ।
याज्ञवल्क्य - याज्ञवल्क्य स्मृति में राजा को राजा को परामर्ष दिये हैं, यदि वह पर राज्य को विजयी कर लें तो उस पर देष के आचार विचार की भांति ही शासन करना चाहिये । अपनी सीमा से लगा राजा श्ी शत्रु होता है, उससे दूर का राजा मित्र तथा उससे परे उदासीन राजा, इस स्थिति को ध्यान में रखकर तो नीति अपनानी चाहिये ।
उन्होंने राजा के छः गुण संधि, विग्रह, मान, आसन, संभय और हथी काल बताये गये हैं । राजा को परिस्थितियों के अनुसार अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रता, शत्रुता, आक्रमण, उपेक्षा, संस्करण अथवा फूट डालने का प्रयत्न करना चाहिये ।
मनुस्मृति- मनुस्मृति भारत की अति प्राचीन कृति है । जिसमें राजदूतों तथा उसके कार्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है । मनु के द्वारा दिये गये नियमों में पड़ोसी देषों के साथ राजनैतिक संबंधों को बनाये रखने के लिये राजदूत की नियुक्ति का प्रावधान था । वह राजदूत को बहुत ही महत्च देता था । उसके अनुसार राजा को राजदूत को नियुक्त करना चाहिये, सेना को सेनापति पर आश्रित रहना चाहिये, प्रजा पर नियंत्रण सेना पर निर्भर करता है। राज्य की सरकार राजा पर शांति और युद्ध राजदूत पर।1 मनु उस व्यक्ति के लिये राजदूत की नियुक्ति पर बल देता है, जो सब शास्त्रों का विद्वान, अच्छे व्यक्तित्व, स्त्री, धूम व मद्यपान से दूर रहने वाला तथा तो चतुर और श्रेष्ठ कुल का हो ।
मनु राजा को युद्ध के प्रयोग का परामर्ष, युद्ध की अनिवार्यता तथा विजय की सुनिष्चितता की स्थिति में एक अंतिम शस्त्र के रूप में ही देता है । वह उसे शत्रु के सर्वनाष के लिये बगुले की भांति व्यवहार का परामर्ष देता है । इसके अतिरिक्त राजा को शेर की भांति शक्तिषाली और लोमड़ी की भांति चालाक होना चाहिये । मनु ने राज्यों की विदेष नीति के बारे में भी विस्तार से वर्णन किया है । मनु का मौलिक सिद्धांत षाष्ठ गुणी मंत्र है, जिसमें मनु राजा की संधि, विग्रह, मान, आसन, द्वैधिभाव और संचय गुणों को ग्रहण करने का परामर्ष देता है ।
शुक्रनीति-शुक्रनीति में शुक्राचार्य ने दूत को छः गुणों वाला बताया है। राजा की परिस्थितिनुसार कठोर व मृदु व्यवहार करना चाहिये, बलवान राजा के विरूद्ध क्रूर युद्ध वांछनीय है । शुक्र शत्रु की सेना में फूट डालकर परास्त करने के पष्चात् प्रजा को प्रसन्न कर उनका पुत्रवत पालन करने पर बल देता है ।
किरातार्जुनीय- किरातार्जुनीय में दूत को राजा का नेत्र माना गया है तथा उसे परामर्ष दिया गया है कि उसे राजा को धोखा नही देना चाहिये । संधि को भंग करने के लिये राजा संधि में दोष बता सकता है, ऐसी संधि भंग करने वाला राजा दोषी नही है । विवेक और शांति राजा के गुण बताये गये हैं । राजा को क्रोध, अहंकार और मद को त्यागना चाहिये ।
रामायण व महाभारत- भारत के महाकाव्यों- रामायण व महाभारत में राजनय की उपयोगिता व उन्मुक्तियों से संबंधित स्फूट उदाहरण मिलते हैं, राम ने लंका के विरूद्ध युद्ध की घोषणा के पूर्व अंगद को रावण के दरबार में शांति के अंतिम प्रयास करने के लिये दूत के रूप में भेजा था । अंगद के नीति के अनुसार समझौते का पूर्ण प्रयास किया था । रावण द्वारा हनुमान के लंका दहन के कारण प्राण दंड के आदेष होने पर रावण के भाई विभीषण ने व्यवधान डालते हुये कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है । उसे दंडित नही किया जाना चाहिये, चाहे वह कैसा भी अपराध क्यों न करे ।
महाभारत- रामायण की भांति महाभारत भी नीति शास्त्र की ऐसी पुस्तक है जिसका अध्ययन कर राजा स्वयं के तथा राज्य के हितों की रक्षा के लिये कार्य कर सकता था। इस समय तक राजनय पूर्ण विकसित हो चुका था । महाभारत में भी दूतों का वर्णन मिलता है । पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरवों के राजा दुर्याेधन के दरबार में दोनों पक्षों के मध्य समझौता करने गये थे, जिससे कि भविष्य में संग्राम न हो । प्रस्थान के पूर्व द्रौपती द्वारा ऐसे असंभव कार्य के औचित्य के संबंध में पूछने पर कृष्ण ने जो उत्तर दिया था वह राजनय से परिपूर्ण था । उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हारी बात को कौरवों के दरबार में अच्छी प्रकार से रखूंगा और प्राण-पण से यह चेष्टा करूंगा कि वे तुम्हारी मांग को स्वीकार कर लें यदि मेरे सारे प्रयत्न असफल हो जायेंगे और युद्ध अवष्यम्भावी हो जायेगा तो हम संसार को दिखा देंगे कि कैसे हम उचित नीति का पालन कर रहे हैं और वे अनुचित का, जिससे विष्व हम दोनों के साथ अन्याय नही कर सके। युद्ध नीति और राजनैतिज्ञ के रूप में कृष्ण एक महान व्यक्ति थे। धर्मराज युधिष्ठिर और अर्जुन को दिये गये नीति प्रवचन, कृष्ण के योग्य एवं आदर्ष राजदूत के द्योतक है। भीष्मपितामह द्वारा अंतिम क्षणों में दिये गये वचन राजा तथा राजनय पर अच्छा प्रकाष डालते हैं । इस प्रकार रामायण तथा महाभारत के काल में ही राजनय का संस्थागत रूप उभर आया था। रामचन्द्र दीक्षितार के अनुसार इस काल में राजनय पूर्ण विकसित था। ये दोनों महाकाव्य, शासन राजनय, युद्ध और शांति पर लिखे गये महत्वपूर्ण ग्रंथ है। पंचतंत्र और हितोपदेष की कहानियों की रचना भी राजाओं को राज्यष्ल्पि में प्रषिक्षित करने के लिये ही दी गई थी। ये राजनयिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्ब करती है।
मौर्यकाल- मौर्यकाल भारतीय राजनय का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल में दूतों को भेजने की प्रथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक भाग बन चुकी थी। अंतरराज्यीय संबंधों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय संबंध भी विकसित हो चुके थे । दूतों का स्थायी व अस्थायी रूप से आदान-प्रदान होता था। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में मैगस्थनीज सीरिया के राजा दूत में सैल्यूकस आया था तथा समुद्रगुप्त के दरबार में सिंहल राजा के दूत आये थे । इसी प्रकार भारत की ओर से चीन व रोम में भी दूत भेजे गये थे । इन दूतों का कार्य मूल रूप से व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करते रहना था । राजतरंगिणी में भी विदेषों में दूतों की नियुक्ति का वर्णन है -
बिन्दुसार के राज्यकाल में सीरिया के राजा एक्टीयोम्स (।बजपवद ब्ीमउे) ने डाइमेक्स (क्मपउंबीवे) नामक व्यक्ति को तथा मिश्र के राजा टोलेमी (ज्ञपदह च्जवसमउल) ने डायोनिसीयस (क्पवदलेपने) को अपने दूत के रूप में भेजा था। सम्राट अषोक ने लंका, सीरिया, मिश्र, मेसीडोन आदि देषों के साथ संबंध स्थापित किये थे। तथा अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संधमित्रा को धर्म दूत के रूप में लंका भेजा था मौर्य शासकों की भांति पुलिकेषिन द्वितीय(च्नासमेपद) के फारस के राजा खुसरो परवेज तथा हर्षवर्धन के चीन के साथ संबंध थे ।
भारतीय राजषास्त्र के चार प्रसिद्ध आधारभूत सिद्धांत साम,दाम, भेद और दंड-राज्यों के पारस्परिक संबंधों को प्राचीन भारत की भांति आज भी निर्धारित करते हैं। साम का अर्थ मित्रता तथा अनुभव है। राजनय के इस नियम के अंतर्गत विपक्षी राजाओं को वाणी चातुर्य तथा राजनयिक कुषलता अर्थात् तर्क और विनम्रता से भिन्न बनाये रखा जाता था। दान का अर्थ है दाम। दान सिद्धांत के अंतर्गत शत्रुपाल को अपनी ओर मिलाने के लिये लोभ और लालच देना होता है। राजनय में कुछ दिये बगैर प्राप्त नही होता है। अतः राज्य को कुछ प्राप्त करना है तो उसे कुछ देना पड़ेगा। साम व दान अर्थात् अनुभव और समझौते में असफल रहने पर भेद व फूट डालने का प्रयत्न किया जा सकता है। राजा का परम कर्तव्य शत्रुपक्ष में फूट डाल उसे दुर्बल बना अपना प्रभाव बढ़ाना होता था। उपर्युक्त तीन उपायों की सफलता के पष्चात् ही चौथे उपाय अर्थात् दंड के उपयोग का परामर्ष मिलता था। मनु भी यथासंभव अंतिम शास्त्र के रूप में ही इसके प्रयोग की छूट देता है। मनु के अनुसार- साम दाम और भेद इनमें से एक से तथा तीनों के एक साथ प्रयोग द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त का प्रयत्न करना चाहिये, युद्ध से नही । इन तीनों उपायों के द्वारा जब सिद्धि प्राप्त न हो तब दण्ड का आश्रय लेना उचित होगा ।
कौटिल्य- राजनय के क्षेत्र में कौटिल्य की महान देन है । वास्तव में कौटिल्य व राजनय पर्यायवाची है । कौटिल्य अरस्तु का एक समकालीन था। इसका वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था, इतिहास में यह चाणक्य के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसने 326 ई0 पूर्व में सिकन्दर महान के आक्रमण से उत्पन्न आंतरिक अराजकता तथा हिन्दु व्यवस्था के विघटन की स्थिति में मौर्यवंष के प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त के पद प्रदर्षन हेतु एक प्रसिद्ध पुस्तक अर्थषास्त्रश् की रचना की थी ।
(चाणक्य नाम इसके जन्म स्थान श्चण्कश् से पड़ा जो कि पाटलीपुत्र (आधुनिक पटना) के निकट स्थित एक गांव था । महामहोपाध्याय गणपति शास्त्री कौटिल्य शब्द के प्रयोग का समर्थन इसलिये करते हैं ।क्योंकि इस शब्द का संबंध कौटिल गौत्र से है, इसके प्रवर्तक कौटिल ऋषि हैं।)
यह अपने ढंग की एक अनोखी पुस्तक है, जिसे भारत की राजनीति शास्त्र की प्रथम पुस्तक कहा जा सकता है। प्रथम खंड के सोलहवें अध्याय में राजनय व राजदूतों के कार्याें के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इसका सातवां खंड विभेदनीति, संधियों और राष्ट्रीय हितो की रक्षार्थ विषयों से संबंधित है।
कौटिल्य की लेखनी सिकन्दर महान के आक्रमण से उत्पन्न अराजक स्थिति से प्रभावित हुई थी, इसलिये उसने राजा की स्थिति की सुदृढ़ता की पूर्ति के लिये तथा राज्य को आंतरिक उपद्रवों तथा बाह्य आक्रमणांे से सुरक्षा के लिये विभिन्न साधनों तथा युक्तियों के प्रयोग का परामर्ष दिया है । एक उच्च कोटि के राष्ट्रवादी होने के नाते कौटिल्य राष्ट्रीय राज्य के आधार पर अखण्ड भारत का पक्का समर्थक था। इसी आधार पर कौटिल्य की राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था का प्रवर्तक माना जा सकता है । वह शासन की संपूर्ण शक्ति राजा में केन्द्रित करना चाहता था अतः उसके विचार का मूलकेन्द्र राजा ही था । कौटिल्य जो कि एक सषक्त भारत के निर्माण का इच्छुक था, चंद्रगुप्त मौर्य की भांति यह विष्वास करना था कि ऐसा विभिन्न उपायों साम, दाम, भेद और दण्ड द्वारा ही संभव था। मेकियावेली ने भी जो आधुनिक राजनय का जनक माना जाता है, अपनी पुस्तक प्रिन्स में राजा को राज्य की सुरक्षा तथा आंतरिक शांति को बनाये रखने के लिये इसी प्रकार का परामर्ष दिया है। कौटिल्य और मेकियावेली में काफी कुछ समानतायें हैं। ये दोनों ही राष्ट्रीयता से प्रभावित थे। दोनों ही काल में देष अराजकता और विघटन से परिपूर्ण था। दोनों ही राष्ट्र हित के आधार पर साध्य को महत्च देकर साधनों को गौण मानते थे। दोनों ही राज्य के हित में नैतिकता को गौण मानते थे। दोनों ही अस्त्र-षस्त्रों व सेना को महत्व देते थे।दोनोें ही गणतंत्राम्तक शासन व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अधिक उपयुक्त मानते थे। ये व्यवहारिकता के आधार पर राजहित पर बल देते थे। दोनों ही युद्ध के विरोधी थे, तथापि इनका विष्वास था कि युद्ध राजनय के माध्यम से रोका जा सकता है। परन्तु एक बार युद्ध शुरू होने पर दोनों ही युद्ध को सफलता के अंत तक ले जाने में समर्थक थे।
राजा-कौटिल्य द्वारा राजनय के उपयोग के सात तत्व थे । स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग कोष दंड और मित्र। कौटिल्य ने इन सभी का विस्तृत वर्णन किया है। स्वामी, अर्थात् राजा इन सभी का केन्द्र था। इसके पद के अपने अधिकार और उत्तरदायित्व थे। कोटिल्य राजा तथा राज्य को शक्तिषाली एवं सुरक्षित बनाये रखने के लिये राजा के जीवन की सुरक्षा को महत्व देता है। घोषाल का भी यह मत है। घोषाल के शब्दों में राजा की व्यक्तिगत सुरक्षा राज्य की सुरक्षा की कुंजी है।श्
युद्ध
कौटिल्य राजा को जहां तक संभव हो सके शांति का मार्ग अपनाने का परामर्ष देता है, जब शांति और युद्ध से समान लाभ की आषा हो तो शांति की नीति अधिक लाभप्रद होगी, क्योकि युद्ध में सदैव शक्ति व धन का अपव्यय होता है। इसी प्रकार जब तटस्थता और युद्ध के समान लाभ हो तटस्थ नीति ही अधिक लाभप्रद व संतोषप्रद होगी। शांतिपूर्ण उपायों की असफलता की स्थिति में प्रत्येक राज्य युद्ध को एक विकल्प के रूप में अपने समक्ष रखता है। परिचक्कर के शब्दों में श्वास्तव मंे जब सभी तरीके असफल हो जायें, तथा सभी परिस्थितियां शस्त्रों के प्रयोग के लिये अनुकूल हो तो युद्ध को नीति के रूप में जारी रखना विचारणीय है। प्राचीन भारत में युद्ध को यथासंभव टालने की नीति का अनुकरण किया जाता था। उदाहरणार्थ चंद्रगुप्त जैसे शक्तिषाली राजा ने अपने पड़ोसी राजा सैल्यूकस जैसे दुर्बल राजा के साथ आक्रमक नीति का पालन नही किया था।
नैतिकता
प्राचीन भारतीय विचारकों ने राज्य व्यवस्था और नैतिकता को परस्पर विरोधी माना है। कौटिल्य भी राज्य की सुरक्षा और समृद्धि के उद्देष्यों की प्राप्ति के लिये नैतिकता को गौण मानता था। वह गुप्तचर सेवा के उपयोग को राज्य की रक्षार्थ आवष्यक समझता था। कामन्दक असंतुष्ट तत्वों से देषद्रोहियों तथा विदेषी शत्रुओं साथ व्यवहार में नैतिकता को त्याग देने का परामर्ष देता है। शुक्रनीति अनुसार नैतिकता को सैद्धांतिक दृष्टि से मूल्यवान मानते हुये भी व्यवहारिक दृष्टि से अनुपयोगी होने का कारण मानता है। यही बात भीष्मपितामह ने राजधर्म के निर्वाह के संबंध में कही है। पंचतंत्र में भी अनैतिक व्यवहार को जनहित के लिये स्वीकार किया गया है।
राजदूत तथा उसके विषेषाधिकार
प्राचीन भारत के सभी राजनीति शास्त्रों के विद्वानों ने दूत को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । सभी ने उसकी उपयोगिता तथा आवष्यकता को स्वीकारा है। राज्यों के पारस्परिक संबंधों- शांतिकालीन अथवा युद्धकालीन का मूल आधार दूत होता था। संस्कृत में दूत का अर्थ संदेष वाहक अथवा वार्ताहार होता है। मनुए कामन्दक, कौटिल्य, चण्डेष्वर आदि विद्वानों ने दूतों की योग्यता, प्रकार, कर्तव्य, आचार आदि पर विस्तार से प्रकाष डाला है। राज्य चार प्रकार के होते थे। अरि, मित्र, मध्यम और उदासीनय इन राज्यों के पारस्परिक संबंधों को संचालित करने के लिये बाह्य नीति का निर्माण होता था जिसे श्मंडल सिद्धांतश् कहा जा सकता है। कौटिल्य के राज्यों की बाह्यनीति के संचालन में दूत का विषेष महत्व माना है।
दूतों के प्रकार
कौटिल्य दूतों को चार श्रेणी में विभाजित करता है-निसृष्टार्थ, परिमितार्थ, शासनहार, आमात्यपद, किसी भी दूत की श्रेणी निर्धारण का मापदंड होता था। आमात्यपद की योग्यता वाला दूत निसृष्टार्थ, उसकी तीन चौथाई योग्यता रखने वाला परिमितार्थ और आधी योग्यता वाला शासन हार कहलाता है। कामन्दक तीसरे श्रेणी के दूत को शासन का नाम देता है। निसृष्टार्थ श्रेणी के दूत का कार्य अन्य श्रेणी के दूत के भांति अपने राजा का संदेष दूसरे राजा के समक्ष प्रस्तुत करना होता था। राजदूत के समस्त विवादपूर्ण समस्याओं के संबंध में पूर्णाधिकार थे। उदाहरणार्थ श्रीकृष्ण कौरवों के पास निसृष्टार्थ दूत के रूप में भेजे गये थे। श्रीकृष्ण का यह कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है मैं शांति दूत बनकर हस्तिनानुर जाऊंगा और शांति प्रयास असफल होने पर युद्ध की घोषणा कर दूंगा। इस प्रकार निसृष्टार्थ दूत को वार्ता को वार्ता के पूर्णाधिकार थे। इस प्रकार के दूत को हम वर्तमान काल के राजदूत के समान मान सकते है। परिमितार्थ दूत के अधिकार, निसृष्टार्थ दूत से कम होते थे। यह दूत राजा द्वारा दिये गये निर्देर्षों की सीमा के अन्तर्गत ही वार्ता करने का अधिकार रखता था। शासन हारए जो तृतीय श्रेणी का दूत होता था, वह केवल संदेषक होता था। इसका प्रमुख कार्य राजाओं के मध्य संदेषों का आदान प्रदान करना होता था। इसे किसी भी प्रकार के वार्तालाप के कोई अधिकार नही थे। यह कभी-कभी गुप्तचरी का काम भी करते थे।
दूतों की श्रेणी विभाजन के संबंध में कामन्दक के विचार पूर्णतः कौटिल्य की भांति ही है। कामन्दक के दूतों के अधिकारों के विषय में कुछ नहीं लिखा है। कौटिल्य कामन्दक और सोमदेव एक अन्य प्रकार के अनधिकृत दूत का वर्णन करते हैं । यह दूत अपने राजा तथा पर राजा से वेतन लेकर दोनों ओर से ही कार्य करता था । इसे कामन्दक ने उभय वेतन भोगी दूत की संज्ञा दी है। अग्निपुराण और नीति वाक्यामृत में दूतों की तीन श्रेणियां बताई गई है ।
दूत के कार्य
कौटिल्य राजदूत को महत्वपूर्ण स्थान देता है, उसके कार्यों का विस्तृत विवरण भी प्रस्तुत करता है । कौटिल्य ने दूत के दो प्रकार के कार्याें का उल्लेख किया है । प्रथम-शांतिकालीन कार्य, द्वितीय-संकटकालीन कार्य ।
संकटकालीन कार्य
कौटिल्य संकटकालीन स्थिति के दूत से अपेक्षा करता है कि उसे पर राज्य के असंतुष्ट वर्ग को अपनी ओर मिलाने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। यदि उसके शांतिकालीन सभी प्रयास असफल रहें और शत्रु राजा आक्रमण की तैयारी में लग जाये तो अंतिम शस्त्र के रूप में जनता को राजा के विरूद्ध भड़का कर राज्य में क्रांति करवाने का प्रयत्न करना चाहिये। कौटिल्य के शब्दों में दूत का कार्य उच्चाधिकारियों को एक-एक करके राज्य को छोड़ देने को उकसाना है। इस हेतु उसे अपने गुप्तचरों को विरोधी राज्य में वैद्य, व्यापारियों, ज्योतिषी, तीर्थषास्त्री, राजा के सेवक, रसोईये तथा साधु आदि के रूप में भेजना उसका प्रमुख कार्य है। वैष्याओं और नर्तकियों से बहुधा गुप्तचरों का काम लिया जाता था। कभी-कभी राजमहल में स्त्रियां तांबूल या छत्र वाहिकाओं का पद भी प्राप्त कर लेती थी ताकि राजा के समीप रहकर राज्य की अंतरंग गतिविधियों का भेद निरन्तर मिलता रहे । दूत का कार्य पर राज्य के जल तथा थल मार्गों एवं दुर्गो आदि की शक्ति से अवगत रहना भी है, जिससे इस सूचना का संकट काल में उपयोग किया जा सके ।
मनु के मत में दूत के तीन प्रमुख कार्य हैं -
1. पर राजा के साथ युद्ध अथवा शांति की घोषणा करना ।
2. संधियां करना और
3. विदेषों में रहकर कार्य करना ।
कौटिल्य ने भी दूत की अवध्यता के सिद्धांत का पूर्ण समर्थन किया है उसका मत था कि दूत चाहे कैसी ही अप्रिय बात कहे अथवा किसी जाति का हो, वह प्रत्येक अवस्था में अवध्य था ।
कौटिल्य ब्राह्मण दूत का वध किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नही करता है। नीति वाक्यमृत और नीति परिक्षिका परामर्ष देती है कि-दूत भले ही चांडाल ही क्यों न हो, अन्यथा वह कैसा ही गलत कार्य क्यों ने करे अवद्य है । नीति प्रकाषिका में महाकाव्यों की शांति दूत के अवध्यता के सिद्धांत को स्वीकार किया है। सौमदेव और चंदेष्वर ने भी दूत के वध का निषेध किया है। इस प्रकार इस काल में राजदूत की स्थिति पवित्र एवं निर्दोष संदेषवाहक की थी ।
संधि
भारत की प्राचीन साहित्यिक कृतियों वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, अर्थषास्त्र, कामन्दन आदि में संधि शब्द का प्रयोग मिलता है। कौटिल्य ने राज्य षिल्प के अंतर्गत छः प्रकार की नीतियों का उल्लेख किया है। यथा-संधि (षांति), विग्रह (युद्ध), शासन(तटस्थता), यान(अभियान), सश्रय(मैत्री) और द्वैधिभाव (छल कपट अर्थात् एक से साथ युद्ध व दूसरे के साथ शांति) ।
कौटिल्य के नीतियों में संधि का सर्वप्रथम उल्लेख कर उसके महत्व को दर्षाया है। वह प्रत्येक मान्य संधि को महत्वपूर्ण तथा अनुल्लंघनीय मानता था। वह संधि की पवित्रता हेतु, शपथ की प्रक्रिया को आवष्यक समझता था। प्राचीन ग्रंथों में शपथ द्वारा संपादित ग्रंथ का उल्लंघन करने पर श्राप अन्यथा दण्ड की व्यवस्था का वर्णन मिलता है। इसमें पन्द्रह प्रकार की संधियों का वर्णन किया है।
कौटिल्य संधि द्वारा शांति संबंध बनाये रखने का समर्थक था । वह इस हेतु संधि में ऐसी लचीली शर्ताें के पक्ष में था जो शांति स्थापना के उद्देष्य प्राप्ति के साथ-साथ शत्रु राजा को निर्बल और स्वयं को शक्तिषाली बनाने में सहायक हो। संधि की व्यवस्था करते हुये वह कहता है कि संधि वह है जो राजाओं को पारस्परिक विष्वास में बांधती है। अथवा संधि वह है जो राजाओं के पारस्परिक विष्वास की प्रेरक हो। सरल भाषा मंे दो राज्यों के मध्य मैत्री संबंध स्थापित होने का नाम संधि है । संधि संपादन के संबंध में मनु का मत है कि यह पूर्ण रूपेण सुविचारित होनी चाहिये ।
निष्कर्ष
इस प्रकार वेद पुराण, स्मृति, रामायण, महाभारत, धर्मषास्त्र, जातक, राजतरगिणी आदि में राजनय का विस्तार से वर्णन किया गया है राजनय के संबंध में जो नियम आधुनिक काल में वियना कांग्रेस द्वारा स्वीकृत किये गये हैं, वे हमारे देष में हजारों वर्ष पूर्व ही विकसित हो चुके थे। मौर्य काल राजनय की दृष्टि से स्वर्ण काल था, कौटिल्य राजनय पर लिखने वाला इस काल का प्रथम तथा प्रमुख विद्वान था। इसी की नीति के क्रिवान्विति के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य उच्च षिखर पर पहुंच सका था। कालान्तर में जब कौटिल्य के व्यवहारिक सिद्धांत की अवहेलना की जाने लगी तो राजवंष क्षीण हो गये, केन्द्र शक्तिहीन हो गये और लगभग ई0 सन् 700 के बाद हिन्दुगणतंत्र छिन्न भिन्न हो गया ।
हिन्दु राजतंत्र के पराभाव के कारण कौटिल्य के सिद्धांतों का महत्व कम नहीं हुआ है। कौटिल्य द्वारा वर्णित चिन्तन आधुनिक युग में भी उपयोगी है। भारतीय विद्वान कांगले का मत है कि निष्चय पूर्वक यह कहना संभव है कि जो यह (अर्थषास्त्र) कहता है वह विष्व राजनीति के संदर्भ में आज भी अधिकांषतः संभव है। यह निर्विवाद सत्य है कि कौटिल्य का राजनय के क्षेत्र में अद्वितीय स्थान बना रहेगा। इस प्रकार राजनय पर प्राचीन भारतीय विचारकों के विचार इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है ।
संदर्भित ग्रंथ
1. मनु टप्प् 65
2. राम चरित मानस(तुलसीदास) गीता प्रेम
3. के.एम. पणिक्कर- राजनय के सिद्धांत तथा व्यक्ता पृष्ठ-3
4. शांतिपर्व राजनय, युद्ध और शांति तथा सरकार पर विचारों का श्रेष्ठ संग्रह है
5. अल्तेका पृ़.ष्0269
6. मजूमदार: टवसण् प् वैदिक युग, पृ. 25
7. पणिक्कर पृ.ष्026
8. पणिक्कर पृ.ष्027

ससहायक प्राध्यापक, राजनीति शास्त्र विभाग
कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाईनगर

Email- Mobile Vibha1957@gmail.com
9329-103499Phone-0788-2292797(R)
0788-2223665(O)Fax-2223352

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